(19 अक्टूबर 2013 को पथ-प्रेरक में प्रकाशित )
आज फिर कुंवर अवधेश के शब्द अपनों को दर्द न दे जाए,
आज फिर कहीं लिखते- लिखते रोना न आ जाए ।
जरा वक्त निकाल कर सोचो कहाँ थे हम और अब कहाँ आ गये है,
डर रहा हूँ यह सोच कर की कहीं अस्तित्व हमारा भी ना खो जाए ।।
कुछ चन्द लोगों को मान लिया समाज का ठेकेदार हमने ,
कहीं उन ठेकेदारों के हाथों समाज नीलाम न हो जाए।
नही लेता इन अपनों के नाम सरेआम इस डर से ,
की कही नाम उनका बदनाम ना हो जाए ।।
कई दशक हो गये सहन करते हुए अब तो उठो ,
कही अत्याचार सहना हमारा स्वभाव न बन जाए।
कर रहा हूँ कोशिश अपना अतीत वापस लाने की ,
कहीं इस कोशिस मे नाम मेरा विरोधियों मे ना जुड़ जाए ।।
सर कटाये है क्षत्रियों ने जोहर किये है क्षत्राणीयों ने,अब तो उठो ,
कही लोगों को खून की पवित्रता पर शक होने ना लग जाए ।
मर गये अपने पूर्वज क्षत्रियता निभाते निभाते ,
कोशिश करो उनके प्रयास कागजों मे सिमट कर ना रह जाए ।।
मांगता हूँ दुआ जब भी देखता हूँ वर्त्तमान स्थिति को ,
की कहीं शुद्र सा हमारा भविष्य ना हो जाए ।
कर रहा हूँ इंतजार अपनों के बदलने का,
कही इस इंतजार मे जिंदगी तमाम ना हो जाए ।।
डर रहा हूँ वर्तमान चाल चलन को देख कर,
की कही संस्कृति हमारी भी लुप्त ना हो जाए ।
चिन्तित होता हूँ जब भी सोचता हूँ अकेले में ,
की कही भविष्य मे हम फिर से गुलाम ना हो जाए ।।
यह लोकतन्त्र है यहाँ सरकारे बदलेंगी तख्त बदलेंगे ,
हम भी कही इन लोकतान्त्रिक पार्टियों के दास ना बन जाएँ ,
सत्ता मे बने रहना है तो अपनी एकता की ताकत दिखाओ ।
वरना कहीं जोधा-अकबर की तरह संपूर्ण इतिहास ना बदल जाए ।।
लेखक:- कुँवर अवधेश शेखावत (धमोरा )
नोट:- कविता में पर्युक्त शुद्र शब्द से आशय किसी जाती विशेष से नहीं है । यहां पर्युक्त शुद्र शब्द से आशय उन लोगों से हैं जिनकी प्राथमिक आवश्यकताएं (रोटी,कपड़ा,मकान) भी पूर्ण नहीं हो पाती है ।।
No comments:
Post a Comment