Saturday 1 March 2014

एक प्रण

(19 मार्च 2013 को "पथ-प्रेरक" में प्रकाशित)

चुप कर दो मुझे वरना मैं सत्य बोलुंगा,
हर एक के दिल में क्रांति की चिंगारी छोडुंगा ।
सुनकर मुझे पानी हुआ खुन भी उबाल खोलेगा,
यदि नहीं खोला तो तेरे खुन पर मेरा शक दोडेगा ।।

क्षत्रिय होकर क्यों तू शुद्र से कृत्य करता है,
धिक्कार है तेरे राजपूत होने पर जो तू दहेज की मांग करता है ।
अरे इस भिखारी को तो देखो, समझ नहीं आता,
दहेज में मिली गाङी में बैठकर यह अभिमान किस बात का करता है ।।

मैं पूछता हूँ क्या उस धनराशि से तेरी उम्र गुजर जाएगी ,
जो तेरी पत्नी तेरे लिए दहेज में लेकर आएगी ।
यदि तू जाती से राजपूत और चरित्र से क्षत्रिय है,
तो स्वयं देवी लक्ष्मी भी तेरे जीवन की कीमत ना लगा पायेगी ।।

समझ में नहीं आता फिर भी तू कैसे अपने स्वाभिमान को बेच डालेगा,
तेरा यह लालच एक और राजपूत परिवार को कर्जदार बना डालेगा ।
यदि आज भी तूने दहेज ना लेने का प्रण ना किया,
तो आज फिर से तू कुँवर अवधेश को रुला डालेगा ।।

:-  कुँवर अवधेश शेखावत (धमोरा )

नोट:- कविता में पर्युक्त शुद्र शब्द से आशय किसी जाती विशेष से नहीं है । यहां पर्युक्त शुद्र शब्द से आशय उन लोगों से हैं जिनकी प्राथमिक आवश्यकताएं (रोटी,कपड़ा,मकान) भी पूर्ण नहीं हो पाती है ।।

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